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बक्सर का युद्ध (1764), Battle of Buxar in Hindi 

 Battle of Buxar in Hindi – दोस्तों, आज हम बक्सर का युद्ध के बारे में जानेंगे और जैसे की हमने पिछले आर्टिकल में जाना था की कैसे और किस प्रकार बंगाल की सत्ता का मोह और बंगाल की आंतरिक कलह का फायदा उठाकर अंग्रेजी कंपनी प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त करती है।  

BATTLE OF BUXER IN HINDI

ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल के नवाब को अपने अधीन रखना चाहती थी, लेकिन मीर कासिम स्वतंत्र शासक बने रहना चाहता था। कंपनी के अधिकारी एलिस ने पटना पर अधिकार कर लिया। मीर कासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के पास शरण ली। शाहजहां भी शुजाउद्दौला के पास ही था। इन तीनों ने मिलकर बक्सर में अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया। सर हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने इन्हें बुरी तरह से हरा दिया। मीर कासिम भाग गया। शाह आलम द्वितीय तथा शुजाउद्दौला ने आत्मसर्मपण कर दिया। लॉर्ड क्लाइव ने इन दोनों के साथ 16 अगस्त, 1765 ई. में इलाहाबाद में संधि की, जिसके अनुसार पचास लाख लेकर नवाब को अवध लौटा दिया गया। लेकिन कंपनी ने कड़ा एवं इलाहाबाद अपने पास रखा। सम्राट् को 26 लाख रु. वार्षिक पेंशन देने का वचन दिया। बदले में शाहआलम ने 20 अगस्त, 1765 ई. को एक शाही फरमान द्वारा अंग्रेजों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी अधिकार प्रदान कर दिए। यह एक अति महत्त्वपूर्ण फरमान (घटना) था, जिससे अंग्रेजों की सत्ता वैधानिक रूप से भारत में स्थापित हो गई।

20 मार्च, 1761 ई. में अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली से लौटते ही शाहआलम को सम्राट् के रूप में मान्यता दे दी। दिल्ली में नजीबुदौला की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र जाबिता खां वजीर बन गया था। जाबिता खां नीच प्रवृत्ति का था। अतः शाहआलम इलाहाबाद से दिल्ली आना चाहता था। 1770 ई. तक मराठों ने स्वयं को उत्तर भारत में प्रतिष्ठित कर लिया था। अब शाह आलम ने मराठों की सहायता से दिल्ली में प्रवेश करना चाहा। अतः मराठों से सहायता का आश्वासन पाकर 17 अप्रैल, 1771 ई. में सम्राट् ने दिल्ली को कूच किया। 6 जनवरी, 1772 ई. वह दिल्ली पहुंचा। दिल्ली की गद्दी पर वह आरूढ़ तो हो गया, लेकिन उसकी भूखों मरने की नौबत आ गई, क्योंकि अंग्रेजों ने उसकी वार्षिक पेंशन बंद कर दी थी। मराठों को संधि के अनुसार 40 लाख का भुगतान नहीं हुआ। अस्तु, मराठों ने जनवरी 1773 ई. में शाही सेना को पराजित कर दिया तथा मिर्जा नजाफ खां के स्थान पर जाबिता खां को ‘मीर बख्शी’ का पद प्रदान कर दिया। दिल्ली की स्थिति और शोचनीय होने लगी तो शाहआलम ने नवंबर 1784 ई. को महादजी सिंधिया को (संरक्षक) वकील मुतल्लक का पद प्रदान किया। महादजी सिंधिया ने जाटों से आगरा और अलीगढ़ जीत लिये। लेकिन दरबारी षड्यंत्रों के कारण सिंधिया के स्थान पर जाबिता खां के बेटे गुलाम कादिर रुहेला को सितंबर 1787 ई. में मीरबख्शी नियुक्त किया गया। उसने दूसरे ही दिन सम्राट् को गद्दी से उतारकर भूतपूर्व सम्राट् अहमदशाह के पुत्र बीदरशाह को सिंहासनारुढ़ कर दिया। गुलाम कादिर ने 17 अगस्त, 1788 ई. को अपने खंजर से शाहआलम की आंखें निकाल दीं और साधारण वस्तुओं की मांग करने पर भी उस पर कोड़े बरसाए जाते थे। नए सम्राट् के साथ भी सख्ती का बरताव किया जाता था। गुलाम कादिर से मिलने के लिए उसे नंगे पांव जाना पड़ता था। गुलाम कादिर ने हरम में जाकर शाहआलम की बेगम तथा अन्य राजकुमारियों का अपमान कर उन्हें कनातों में रहने के लिए बाध्य कर दिया। सात दिनों तक शाहआलम को मोटी रोटी और पानी के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला। अंतत: शाहआलम ने महादजी सिंधिया से जीवन रक्षा और आत्मसम्मान बचाने के लिए गुहार लगाई। सिंधिया ने 11 अक्तूबर, 1788 ई. तक दिल्ली पर अधिकार कर लिया। सिंधिया के सेनापति राना खां ने अंधे नवाब के प्रति सम्मान व्यक्त किया। 31 दिसंबर, 1788 ई. को गुलाम कादिर को कैद कर लिया गया, लेकिन बाद में मुक्त होकर असहाय यातनाएं देने के बाद गुलाम कादिर ने उसकी हत्या करवा दी।

महादजी सिंधिया की 12 फरवरी, 1794 ई. में मृत्यु हो गई। शाहआलम की स्थिति फिर से दयनीय होने लग गई। अब अंग्रेजों की दिल्ली दूर नहीं लगी। 14 सितंबर 1803 ई. को अंग्रेज सैनिक दिल्ली की ओर बढ़े। जनरल लेक के नेतृत्व वाली सेना का दिल्ली में स्वागत किया गया। 1805 ई. में शाह आलम और दिल्ली की सत्ता पर अंग्रेजों का पूर्ण अधिकार हो गया। वस्तुतः सम्राट् अपनी मृत्यु, 19 नवंबर, 1806 ई. तक, दयनीय अवस्था में अंग्रेजों का पेंशनर बनकर रहा। शाहआलम द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अकबर द्वितीय मुगलों की महान् गद्दी का वारिस बना। वह भी अंग्रेजों की पेंशन पर निर्भर रहता था। उसकी मृत्यु 1837 ई. में हो गई। अब उसका पुत्र बहादुरशाह सम्राट् बना। वह नाममात्र का सम्राट् था, लेकिन वह अंग्रेजों से घृणा करता था। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 की क्रांति में भाग लिया था। अंग्रेजों ने उसे पकड़कर मुकदमा चलाया तथा रंगून में कैद कर लिया। रंगून में 7 नवंबर, 1862 ई. को उसकी मृत्यु हो गई और उसके साथ हो महान् मुगल साम्राज्य का पटाक्षेप हो गया। इस महानतम वंश के अंतिम बादशाह ने अपनी मृत्यु से पूर्व लिखा-

‘उम्र-ए-दराज मांगकर लाए थे चार दिन,

दो आरजू में कट गए, दो इंतजार में।

कितना है बदनसीब जफर दफन के लिए

दो गज जमीन भी न मिली कूए-यार में। 1867 ई. में उसके परिवार को कैद से छोड़कर रंगून में कहीं भी बस जाने की आज्ञा मिल गई। जहां पर एक-एक करके सबकी मृत्यु हो गई।

भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्ध कब और किसके बीच हुआ था।

भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्धसमयकिसके बीचविजेता
पानीपत का प्रथम युद्ध1526 .मुग़ल शासक बाबर और इब्राहीम लोधी के बीच। 
खानवा का युद्ध 1527 .बाबर और राणा सांगाबाबर
घाघरा का युद्ध1529 .बाबर ने महमूद लोदी के नेतृत्व में अफगानों को हराया।बाबर
चौसा का युद्ध1539 शेरशाह सूरी और हुमायु के बीच।शेरशाह सूरी
कन्नौज /बिलग्राम का युद्ध1540 .शेरशाह सूरी और हुमायु के बीच।शेरशाह सूरी
पानीपत का द्वितीय युद्ध1556 अकबर और हेमू के बीच। 
तालीकोटा का युद्ध1565 .  
हल्दी घाटी का युद्ध1576 .अकबर और राणा प्रताप के बीचअकबर
प्लासी का युद्ध1757 अंग्रेजो और सिराजुद्दौला के बीचअंग्रेज
वांडीवाश का युद्ध1760 अंग्रेजो और फ्रांसीसियो के बीचअंग्रेज
पानीपत का तृतीय युद्ध1761 .अहमदशाह अब्दाली और मराठो के बीचमराठो
बक्सर का युद्ध1764 .अंग्रेजो और शुजाउद्दौला, मीर कासिम एवं शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना के बीच,अंग्रेज

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