महात्मा बुद्ध ने अपना पहला धर्मोपदेश सारनाथ में दिया, जिसे प्रवर्तन’ (धर्म के चक्र को घुमाना) के नाम से जाना जाता है। उन्होंने अपने अधिकांश उपदेश बावस्ती में दिए अपने जीवन के पैंतालीस वर्षों तक वे सारनाथ, मथुरा, राजगीर गया, पाटलिपुत्रे, कपिलवस्तु आदि में घूम-घूमकर अपने धर्म का प्रचार करते रहे। उनका देहावसान कुशीनगर अथवा कुशीनारा (पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसिया नामक ग्राम) में हुआ। उनके देहावसान को ‘महापरिनिर्वाण’ कहा जाता है। देहावसान के बाद महात्मा बुद्ध की अस्थियों को कलशों में रख दिया गया और उन अस्थि कलश पर स्तूप बना दिए गए। भरहुत, सांची और अमरावती के स्तूप ऐसे ही स्तूपों के उदाहरण हैं।
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महात्मा बुद्ध जन्म :
महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ई. पू. कपिलवस्तु के लुंबिनी वन में हुआ। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। महावीर की तरह इनका संबंध भी कुलीन परिवार से था। इनके पिता नेपाल को तराई में स्थित कपिलवस्तु राज्य के शासक थे। उनकी माता माया देवी कोशल राजवंश की राजकुमारी थीं। उनके जन्म के समय उनकी माता का देहांत हो गया था। उनके पालन पोषण में उनकी मौसी और विमाता गौतमी ने कहा कि मैं राजकुमारों की एकल उच्च शिक्षा में शामिल हो गई, लेकिन उनका परिचय केवल धार्मिक कार्यों से दूर था। इनके जन्म पर भविष्यवाणी की गई है कि सिद्धार्थ या तो सम्राट सम्राट या महान साधु बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी के समकालीन थे।
महात्मा बुद्ध विवाह:
राजाओं को डर था कि उनके पुत्र साधु न बनें, उनके पिता ने उनसे विवाह उन्नीस वर्ष की आयु में राजकुमारी यशोधरा के साथ किया था, जिससे उन्हें राहुल नाम के पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। लेकिन ये धार्मिक पीड़ाओं से दुःखी रहते थे और उनके मन दुनिया से उचाट हो चुका था। बाल्यकाल से ही उनका मन आध्यात्मिक चिंतन की ओर आकर्षित हुआ था। उनका मन दाम्पत्य-जीवन में नहीं लगता था। पारंपरिक आपदा के अनुसार एक बड़ा खंडहर व्यक्ति एक बीमार व्यक्ति एक मृत व्यक्ति की शव यात्रा और एक संत को देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ। इनके बारे में उनकी जानकारी मन दुनिया से विरक्त हो गई। मानव जीवन के दुःखों ने सिद्धार्थ पर डाला गहरा प्रभाव। उन्होंने 29 साल की उम्र में अपने घर पत्नी व पुत्र का विवाह कर दिया।
तपस्या:और सत्य की खोज
सत्य की खोज में भटकते हुए इस प्रकार उन्होंने 29 साल की उम्र में अपनी पत्नी और बच्चे को त्याग दिया और जंगल में तपस्या करने चले गए। सात वर्ष तक तपस्या करने के बारे में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने दुखों से माने का उपाय खोज लिया और महात्मा बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध बौद्ध गए जिस पीपल के वृक्ष के नीचे नानां जान प्राप्त हुआ था, वहां अब ‘महाबोधि’ है। के नाम से प्रसिद्ध मंदिर है।
बौद्ध मतावलंबी गृहत्याग की घटना को ‘महाभिनिष्क्रमण’ या महान त्याग कहा जाता है। कुछ समय तक ज्योतिष के अनानार तथा उदक जैसे सुप्रसिद्ध आचार्यों से उपनिषदों की शिक्षा प्राप्त की। सहायक यह शिक्षा गौतम को अंतिम टी की राह में सफल नहीं हो सका। इसके बाद छह वर्षों की निरंतर कठोर तपस्या और आहारस्वर सुखकर अस्थिपंजर को जारी किया गया। अन्य ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। अंततः गौतम कठोर तप का त्यागकर उरुवेला बोध गया के पास के पास निरंजना नदी के किनारे और एक के पेड़ के नीचे ध्यान-मग्न हो गए। अंत में अपनी समाधि के 49 वे दिन उन्हें सर्वोच्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। तब से उन्हें “महक्तम बुध ‘ज्ञानी पुरुष कहा जाने लगा। तब से उन्हें अपने आयु के 45 वे वर्ष में बुधत्व को प्राप्त किया।
उपदेश और प्रचार:
ज्ञान प्राप्त करने के बाद महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया पदमावन और सच्चरित्र होतोय मोक्ष का अधिकारी है। उनके अस्त्र-शस्त्र में मत दूर-दूर तक की बात कही गई। अश्वजित, उपालि, योगललाना श्रेय
पुत्र आनंद शिष्य थे। जल्द ही वे सारनाथ, मथुरा, राजगीर और पाटलिपुत्र भी गए। बिम्बिसार और उदयन जैसे सम्राट ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। वे कपिलवस्तु भी गए। वन्हा सभी साक्यो ने उपदेश सुना और उनके पुत्र रहोल और सौतेला भाई नंद भी उनके भाई बन गए। उनकी विमाता और पत्नी यशोधरा ने भी धर्म सविकार कर लिया। वे अपने जीवन के 45 वर्ष तक संसार से मुक्ति या मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्म प्रचार करते रहें।
महापरिनिर्वाण:
45 वर्ष लगातार धर्म-प्रचार के बाद 80 वर्ष ई. पू. वैदिक वैशाख पूर्णिमा में उनका निर्वाण (देहात) हुआ, जिसे उनकी परंपरा ‘महापरिनिर्वाण’ कहा जाता है।अनहोन अपने परमप्रिय शिष्य आनंद से उन्होंने अंतिम शब्द कहा-
"हे आनंद। अपने लिए स्वयं दीपक बनो। सच्चाई के दीपक को दृढ़ता से थामे रखो। सरन के लिए अपने आपको छोड़ कर किसी को भी मत देखो"