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सिख धर्म के संस्थापक, गुरु, और उनके कार्य

सिख धर्म


अफगान साम्राज्य के पतन के उपरांत भारतवर्ष में धर्म सुधार आंदोलन में एक अद्भुत संप्रदाय का आविर्भाव हुआ, जिसने हिंदुओं के एक समुदाय में नवीन चेतना का संचार करते हुए उन्हें नेकी, सच्चाई और भेदभाव रहित मार्ग का प्रदर्शन किया। इस संप्रदाय के प्रवर्तक गुरु नानक थे। हर युग में, हर काल में, हर जाति, देश और समाज में ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने समाज को अंधकार से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाने का प्रयत्न किया। गुरु नानक ऐसे ही महान् पुरुष थे।

गुरु नानक ( 1469-1539 ई.)


गुरु नानक का जन्म तलवंडी में 15 अप्रैल, 1469 ई. में हुआ था। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना हो गया। उनके पिता का नाम मेहता कालूजी तथा माता का नाम तृप्ता था। वे खत्री जाति के वेदी वंश में पैदा हुए थे। कालूजी अपने गांव के पटवारी थे। कृषि एवं व्यापार द्वारा परिवार का भरण-पोषण होता था। नानक बाल्यकाल से ही विलक्षण बुद्धि वाले बालक थे। उनकी शिक्षा एवं अध्ययन का प्रबंध गोपालजी, पंडित बृजनाथ, मौलवी कुतुबद्दीन आदि गुरुओं के पास किया गया। किंतु अध्ययन में उनकी रुचि नहीं थी। वास्तव में सांसारिक विषयों में उनकी अभिरुचि थी ही नहीं। वे अध्यात्मवाद की ओर आकर्षित थे। वे सच्चाई और ईश्वर को खोजना चाहते थे देश की अंधकारपूर्ण स्थिति और भारतीय समाज का ढकोसला उनकी चिंता का कारण थी। हिंदू समाज में जाति- पांति, छुआछूत, ऊंच-नीच के एक वर्णभेद ने उन्हें हिंदू धर्म से विमुख कर दिया था। दूसरी ओर मुसलमान शासक, पीर और फकीर तथा केंद्रीय एवं प्रांतीय मुसलमान तथा सरकारी अधिकारीगण सम्मिलित रूप से अपने भोग विलास हेतु भारतीय जनता का शोषण कर रहे थे। देश की अंधकारपूर्ण स्थिति तथा हिंदू समाज में फैले आडंबर के कारण गुरु नानक चिंताग्रस्त थे।
गुरु नानक के ऐसे विचारों से चिंतित माता-पिता ने 1487 ई. में उनकी शादी सुलक्षणी नामक लड़की से करवा दी। श्रीचंद एवं लक्ष्मीचंद नामक उनके दो पुत्र हुए। किंतु गुरु नानक का मन गृहस्थी में नहीं लगा। उन्होंने दौलत खां लोदी की नौकरी भी छोड़ दी और गहन चिंतन में रम गए। 1496 ई. में वे व्यास नदी के किनारे बैठकर चिंतन कर रहे थे, तो उन्हें ईश्वर का दर्शन एवं ज्ञान प्राप्त हुआ। अब नानकजी गृहस्थ का चोला छोड़कर धार्मिक चोला धारण कर धर्म प्रचार में लग गए। इसके लिए उन्होंने चार बड़ी यात्राएं कीं। उन्होंने पहली यात्रा 1507 ई. से 1515 ई. तक तथा दूसरी यात्रा 1527-1529 ई. तक करते हुए संपूर्ण देश का भ्रमण किया। इस भ्रमण के दौरान उन्होंने मानवता का पाठ पढ़ाया। हिंदू तीर्थस्थानों पर जाकर पंडितों को अपना सिद्धांत बताया। मक्का तथा बगदाद शरीफ पहुंचकर दरवेशों से मिलकर अपने धार्मिक सिद्धांतों की व्याख्या की तथा ‘हजरत ख्बुल मजीज’ की उपाधि प्राप्त की। गुरुनानक ने अपना पूरा जीवन मानवतावादी विचारों को फैलाने के लिए अर्पित कर दिया। 22 सितंबर, 1539 ई. को इस संसार से विदा लेते हुए वे ब्रह्मलीन होकर निरंकार हो गए।
गुरु नानक के विचार थे कि शरीर ईश्वर का महल, मंदिर तथा घर है और इसमें ईश्वर का वास होता है। अतः परमात्मा की रची हुई सृष्टि की सेवा से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। मनुष्य अपने कर्म और कर्तव्य से देववृत्ति अथवा राक्षस स्वभाव का बनता है। सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं। अतः किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार का त्याग मनुष्य के शुभ गुण हैं। सेवा, सदाचार, बलिदान, आत्मगौरव सच्चे सिख के गुण हैं। उन्होंने विश्व बंधुत्व की भावना को फैलाने का प्रयत्न किया तथा ज्ञान, कर्म और भक्ति तीनों मार्गों का समन्वय कर उस पर चलने का महत्त्व स्थापित किया। ज्ञान के साथ भक्ति भी आवश्यक है।
गुरु नानक एवं गुरुओं के उपदेश ‘गुरु ग्रंथ साहब’ में संकलित हैं। उनके द्वारा रचित अन्य ग्रंथ हैं-‘जपुजी साहेब पट्टी, आरती, दक्षिणीय ओंकार, सिद्ध गोष्ठी, आसा दीवार, रहिरास बारह माह, सहिला, नानक जी की साखी। गुरु नानक के पास अपने उत्तराधिकारी को मृत्यु से पूर्व चुनने का कार्य था। उन्होंने अपने पुत्रों को इस पद के अनुकूल नहीं माना। अपने परम शिष्य अंगद (लटना) को अपना उत्तराधिकारी बनाकर लोकतंत्रात्मक पद्धति की नींव रखी।

गुरु अंगद (1539-1552 ई.)

गुरु नानक की मृत्यु के बाद गुरु अंगद उनके उत्तराधिकारी बने। ये तीहुन खत्री जाति के थे। गुरु नानक इनकी योग्यता और व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित हुए थे और इसी कारण अपने दो पुत्रों के रहते हुए भी उन्होंने अंगद को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था। ये 1539 ई. से 1552 ई. तक इस पद पर बने रहे। सिख धर्म अभी नवजात था, अस्तु, इसकी रक्षा और विस्तार का महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व अंगद के कंधों पर ही था। गुरु अंगद ने जी-जान से इसके लिए प्रयत्न किया। उन्होंने खंडहर में रहकर तेरह वर्ष तक गुरु नानक के उपदेशों का पालन और सिख धर्म का प्रचार किया। अंगद के नेतृत्व में ही ‘गुरु नानक के जीवन चरित्र’ की रचना की गई तथा उनकी वाणियों एवं शब्दों को एकत्रित करके लिपिबद्ध किया गया। गुरु अंगद ने सिखों के अनुशासन और सदाचार पर जोर दिया। ऐसा कहा जाता है कि मुगल सम्राट् हुमायूँ गुरु अंगद का आशीष पाने के लिए उनके पास गया था। गुरु अंगद की मृत्यु 48 वर्ष की आयु में सन् 1552 ई. में हो गई।

गुरु अमरदास (1552-1574 ई.)

सिखों के तीसरे गुरु अमरदास को गुरु अंगद ने अपनी मृत्यु के समय अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था। अमरदास मल्ला खत्री जाति के थे और सिख संप्रदाय में आने के पूर्व विष्णु के उपासक थे। अमरदास 1552 ई. में सिखों के गुरु बने और अपनी मृत्यु (1574 ई.) तक वे इस पद पर आरूढ़ रहे। इन्होंने गोइंदावाला को अपने कार्यक्षेत्र का केंद्र बनाया। यहां इनके द्वारा एक बावड़ी का निर्माण किया गया, जो बाद में सिखों का एक महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थान बन गई। अमरदास ने भी गुरु नानक के आदर्शों को अपनाया और सिख धर्म में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए। उन्होंने सती-प्रथा को रोकने का प्रयास किया, स्त्रियों के बीच परदा की प्रथा को हटाने पर जोर दिया, सिखों के बीच शराब आदि नशीली वस्तुओं के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया और गुरु नानक द्वारा स्थापित की गई संस्थाएं सदाव्रत, लंगर आदि को काफी प्रोत्साहित किया। गुरु अमरदास ने ही देश में गुरु के प्रतिनिधियों की गद्दियां स्थापित की और प्रत्येक गद्दी के लिए योग्य एवं प्रभावशाली सिखों की नियुक्ति की। इनके समय से ही सिख तथा हिंदुओं के बीच विभेद बढ़ गए और सिख धीरे-धीरे हिंदू समाज से अलग होने लगे। गुरु अमरदास ने 1 सितंबर, 1574 ई. को इस लोक का त्याग कर दिया।

गुरु रामदास (1575-1581 ई.)

गुरु अमरदास की मृत्यु के बाद उनके जामाता रामदास 1574 ई. में सिखों के चौथे गुरु बने। रामदास के समय तक सिख संप्रदाय एक पृथक धर्म के रूप में विकसित हो चुका था। सिखों के मत में उनके गुरु ईश्वर के अवतार थे और सिख गुरुओं में गुरु नानक की आत्मा का वास था। गुरु नानक के केवल बाह्य रूप में परिवर्तन आया था और उनकी आत्मा एक के बाद दूसरे सिख गुरु के शरीर में प्रविष्ट होकर अमर थी। अपने पूर्व के गुरुओं की तरह रामदास ने भी गुरु नानक के पदचिह्नों का अनुसरण किया। अपनी मृत्युपर्यंत सिख धर्म के उत्थान में संलग्न रहे। धार्मिक उदारता का प्रतीक सम्राट् अकबर सिख गुरु रामदास का अत्यंत सम्मान करता था। उसने रामदास को 1577 ई. में ग्राम तुंग (आधुनिक अमृतसर) में मात्र 700 अकबरी रुपए में पांच सौ बीघे जमीन दी। उसने पंजाब में एक वर्ष का लगान भी माफ कर दिया। गुरु रामदास ने इस कृषि भूमि पर अमृतसर तथा संतोषसर नामक दो सरोवरों का निर्माण किया और इनके आस- पास अमृतसर नगर को बसाना प्रारंभ किया। उन्होंने यहां बावन पेशे के लोगों को हर प्रकार की सहायता का आश्वासन देकर बसाया। जल्द ही यह क्षेत्र व्यापार, शिल्पकला उद्योग-धंधों क्रय-विक्रय आदि का केंद्र बन गया। गुरु ने अमृतसर में एक मंदिर का भी निर्मा करवाया। अस्तु, जल्द ही अमृतसर सिखों के एक प्रधान तीर्थ-स्थान के रूप में परिणत हो गया। उन्होंने मसनद प्रणाली की स्थापना की। मसनद अथवा सिख एजेंट धर्म-प्रचार तथा गुरुद्वारा आदि के निर्माण हेतु सिखों से चंदे वसूल किया करते थे। अतः सिख मठों को आर्थिक अवस्था मजबूत होती चली गई और यह संप्रदाय जनता के बीच लोकप्रिय होता चला गया। रामदास पूरे सात वर्षों तक सिखों के गुरु रहे। 1 सितंबर, 1581 ई. को गोइंदवाल में इन्होंने अपने पार्थिव शरीर को त्याग दिया।

गुरु अर्जुन देव (1581-1607 ई.)

गुरु रामदास की मृत्यु के पश्चात् उनके तीसरे पुत्र अर्जुन देवजी गुरु की गद्दी पर आरूढ़ हुए। रामदास ने अपने ज्येष्ठ पुत्र पृथीया को इस पद के लिए मनोनीत नहीं किया, क्योंकि वह अत्यंत लोभी और ईष्यालु था। अर्जुन देव का गुरुकाल अनेक दृष्टियों से अत्यंत महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। इसी समय में सिखों एवं मुगलों के बीच संघर्ष प्रारंभ हुआ। अर्जुन देव 1581 ई. में सिख गुरु के पद पर बैठे। इनके काल में न सिर्फ गुरु पद वंश परंपरानुगत हो गया, वरन् गुरु के अधिकारों में वृद्धि हुई। उन्हें राज्याधिकारों से विभूषित किया गया और सिखों के गुरुओं की पूजा चल पड़ी। गुरु अर्जुन देव प्रथम गुरु थे, जिन्होंने राजनीति में दिलचस्पी ली। अब तक के सभी सिख गुरुओं ने सीधा-सादा जीवन व्यतीत किया था और अपने दरबार में भी वे सादगी रखते थे। किंतु अर्जुन देव ने इस सादगी का त्याग कर दिया। तड़क-भड़क, साज-सज्जा, कीमती घोड़ों और भरे-पूरे खजाने के कारण अब सिख गुरु का दरबार किसी राजसी दरबार से कम नहीं था। बहुत अंशों में गुरु अर्जुन देव के गुरु काल में सिखों का उदय पंजाब में एक राजनीतिक शक्ति के रूप में हुआ। गुरु ने मसनदों द्वारा सिखों से निश्चित धर्म कर वसूल करवाया और उन्हें अमृतसर के खजाने में जमा किया गया। सिख धर्म के संगठन हेतु धनोपार्जन करने के उद्देश्य से गुरु ने बड़े पैमाने पर व्यापार प्रारंभ किया। संभवतः अपने पद के राजसी महत्त्व को दिखलाने के उद्देश्य से ही उन्होंने अपने पुत्र हरगोविंद, जो उनकी मृत्यु के बाद सिख गुरु बने, का विवाह लाहौर के धनाढ्य मंत्री चंदूशाह की पुत्री सदाकौर से किया। और तो और, गुरु अर्जुन देव ‘सच्चा बादशाह’ कहकर पुकारे जाने लगे। गुरु पद में ये परिवर्तन निस्संदेह अर्जुन देव के गुरु काल की देन है।

गुरु हरगोविंद(1607-1644ई.)

1606 ई. में अर्जुन देवजी के पुत्र हरगोविंद 11 वर्ष की आयु में गुरु की गद्दी पर बैठे। उनका हृदय पिता की हत्या से व्यथित था और वे मुगलों से बदला लेने के लिए दृढ़ संकल्पित थे। उन्होंने गुरु के स्थान पर ‘सच्चा बादशाह’ की पदवी धारण की तथा स्वयं को शस्त्र- छत्र आदि राजचिह्नों से सुशोभित किया। उन्होंने मीरी (धर्म का) और पीरी (सांसारिक कर्मों का चिह्न) नामक दो तलवारें धारण कीं। सारे मनसदों के नाम आज्ञा-पत्र भेजे और द्रव्य के बदले चढ़ावे में भेंट के तौर पर शस्त्र और घोड़े देने का आग्रह किया। गुरु की रक्षा के लिए अंगरक्षक नियुक्त किए गए, अमृतसर की रक्षा हेतु लौहगढ़ किले का निर्माण करवाया गया। हरमंदिर साहब से पृथक् अकाल तख्त का निर्माण हुआ माझे मालवे तथा दोआब के लगभग 500 युवकों ने अवैतनिक रूप से अपनी सेवाएं गुरुजी को समर्पित कर दीं। जहांगीर ने क्रोधित होकर गुरु हरगोविंदजी को जेल में डाल दिया। लेकिन दो वर्ष के पश्चात् उन्हें जेल से निकाल दिया गया, लेकिन जहांगीर की मृत्यु के पश्चात् शाहजहां भी गुरुजी के विरुद्ध हो गया। 1628 ई., 1631 ई. और 1634 ई. में क्रमश: अमृतसर एवं लाहौर में सिखों और मुगलों में युद्ध हुए। अंतिम युद्ध में सिखों की पराजय हुई। गुरुजी ने कश्मीर में शरण ली और वहां कीर्तिपुर नगर बसाया तथा वहीं पर 19 मार्च, 1644 ई. में अनका निधन हो गया।

गुरु हरराय(1645-1661ई.)

गुरु हरगोविंद के पौत्र हरराय 3645 ई. से 1661 ई. तक गुरु रहे। वे शांतिप्रिय थे। उन्होंने पंजाब से बाहर सिख धर्म के प्रचार के लिए अपने प्रिय शिष्यों भाई रूपा, भाई बहला, भाई फर्रु को अन्य राज्यों में भेजा। गुरु हरराय के शाहजहां के पुत्र दाराशिकोह से मैत्रीपूर्ण संबंध थे। लेकिन दारा शिकोह उत्तराधिकारी की दौड़ में विफल रहा, लेकिन औरंगजेब ने सम्राट् बनकर गुरु हरराय से कोई बदला नहीं लिया। गुरु हरराय ने अपने बड़े पुत्र रामराय के स्थान पर कनिष्ठ पुत्र हरकिशन को भावी गुरु मनोनीत किया। गुरु हरराय की मृत्यु 6 अक्टूबर, 1661 ई. में हो गई।

गुरु हरकिशन(1601-1664ई.)

पांच वर्ष की अवस्था में हरकिशन सिखों के आठवें गुरु बने, लेकिन 4 वर्ष के पश्चात् ही चेचक से उनकी मृत्यु हो गई।

गुरु तेगबहादुर (1664-1675 ई.)

गुरु हरकिशन इन्हें ‘बाबर बकाला’ के नाम से पुकारते थे और शायद गुरु भी बनाना चाहते थे। 44 वर्ष की आयु में गुरु बने तेगबहादुर ने बकाला गांव को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। लेकिन उन्हें अनेक विरोधियों का सामना करना पड़ा। डेराबाबा नानक, गोविंद बाल, खंडूर तथा अमृतसर में गुरु वंश के बेदी तथा सोढ़ी और रामराय अपनी-अपनी अलग गद्दियां लगाए बैठे थे। गुरु तेगबहादुर ने आनंदपुर नामक स्थान पर अपनी गद्दी लगाई। फिर देश भर में धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े। जब पटना पहुंचे तो उनकी पत्नी गुर्जरी गर्भवती थी। अतः उन्होंने अपनी माता मानकी एवं भाई कृपाल सिंह को पटना में ही रहने दिया और स्वयं मुंगेर तथा ढाका की ओर प्रस्थान कर गए। 26 दिसंबर, 1666 ई. में इन्हें पुत्ररत्न प्राप्त हुआ, जिसका नाम गोविंद सिंह रखा। इस समय तक गुरु का पद सादगी का नहीं, ठाट-बाट का हो गया था। वह ‘सच्चा बादशाह’ कहलाते थे। उनकी अपनी सेना भी होती थी। मुगल सम्राट् को यह सहन नहीं हुआ। उसने गुरुजी को आगरा में कैद कर दिया। औरंगजेब ने तेगबहादुर के खिलाफ अवैधानिक कर उगाहने तथा विद्रोह का अभियोग लगाया। गुरुजी के सामने उसने दो विकल्प रखे-मुसलमान बनना अथवा मृत्यु ! गुरुजी ने इस्लाम कबूल करने का प्रस्ताव ठुकरा दिया। शाही आज्ञा से 14 नवंबर, 1675 ई. को गुरुजी का सिर चांदनी चौक दिल्ली में सरेआम काट दिया गया। गुरु तेगबहादुर का बलिदान उनकी मर्यादा के अनुकूल था। सारा पंजाब और सिख एवं हिंदू समुदाय क्रोध और दुःख में उबलने लगा। औरंगजेब की धर्मांधता ने खालसा पंथ को जन्म दिया। मुगलों के प्रति प्रतिहिंसा की भावना जनमानस में फैल गई।

गुरु गोविंद सिंह(1675-1761ई.)

गुरु तेगबहादुर की निर्मम हत्या के समय उनके पुत्र गोविंद सिंह की आयु मात्र 15 वर्ष थी। वे सिखों के दसवें गुरु बने। औरंगजेब की धर्मांधता के कारण उन्होंने अपना स्थान हिमाचल के ‘पाउंता’ नामक पहाड़ पर स्थित कर लिया। यहां पर उन्होंने संस्कृत भाषा, हिंदू महाकाव्यों के अध्ययन के साथ-साथ अस्त्र-शस्त्र आदि चलाने का प्रशिक्षण स्वयं भी लिया और अन्य नवयुवकों को भी दिलाया। ये देखकर विलासपुर और श्रीनगर के पहाड़ी राजाओं में शंका उत्पन्न हो गई। 1686 ई. में इन्होंने गुरुजी पर आक्रमण कर दिया। पठानों और उदासियों ने गुरुजी का साथ छोड़ दिया। लेकिन सैयद बुद्धशाह अपने चार पुत्रों और सात शिष्यों के साथ गुरुजी से मिल गया। वर्तमान राजपुर-मसूरी-देहरादून सड़क के समीप भगानी नामक स्थान पर गुरुजी ने शत्रुओं को हरा दिया। भगानी की सफलता ने सिखों में आत्मविश्वास की भावना भर दी। गुरुजी आनंदपुर वापिस आ गए। यहां पर उन्होंने सिखों को प्रशिक्षित करने का कार्य आरंभ कर दिया। औरंगजेब ने अपने पुत्र मुअज्जम के अधीन सेना की एक टुकड़ी यहां भेजी। 1695 ई. नादोन में पहाड़ी राजाओं और सिखों की सेना ने मुगलों को हरा दिया। मुअज्जम ने गुरुजी के साथ समझौता कर लिया।
गुरुजी ने मुगलों के अत्याचार में डूबी जनता का आह्वान किया और घोषणा की कि “तलवार, एकता, साहस और बलिदान से
बढ़कर कोई देवी देवता नहीं है। अकाल का आसरा तथा उसका स्मरण करने से मनुष्य में शक्ति उत्पन्न होती है।” उन्होंने सिखों को
एक सुसंगठित सैनिक भ्रातृमंडल में परिणत कर दिया। 30 मार्च, 1696 ई. वैसाखी के दिन आनंदपुर में लगभग 80,000 सिख व हिंदू-
एकत्रित हुए। गुरुजी ने सिखों के साहस और बलिदान की परीक्षा लेने के लिए हाथ में नंगी तलवार लेकर आह्वान किया और कहा कि मुझे कुछ ऐसे सिख चाहिए, जो खुशी से अपना सिर कटवाने के लिए तैयार हों। पांच साहसी व्यक्ति, लाहौर का दयाराम खत्री, दिल्ली का जाट धर्मदास, द्वारका का एक दरजी मोहकम चंद्र छींबा, जगन्नाथ का हिम्मत भीवर, बीदर का एक नाई साहबचंद्र अपने शीश गुरुजी को भेंट करने के लिए तैयार हो गए तथा गुरुजी की परीक्षा में सफल उतरे इनको खड्ग का अमृत पिलाकर ‘पंज पियारे’ को संज्ञा प्रदान की। वे ही ‘खालसा’ या ‘खालिस’ कहलाए। इस तरह गुरु गोविंद सिंह ने ‘खालसा पंथ की स्थापना की। उन्होंने इस पंथ के कुछ नियम निर्धारित किए-

1. गुरु की सिखी धारण करने के लिए खड्ग का अमृत पंज पियारों से पिंए तथा भजन उपदेशों को अपने जीवन में धारण करें।

2. कोई सिख एक अकाल के अतिरिक्त किसी देवी-देवता, मढ़ी, मसान, तीर्थ, मठ, पीर, फकीर, मजार आदि की पूजा न करें। उनकी न तो मन्नत माने और न ही चढ़ावा चढ़ाए।
3.पांच कवके (ककार) कश, कंघा, कृपाण, कड़ा, कच्छा-शरीर पर हर समय धारण करें।

4. प्रत्येक सिख अपनी ईमानदारी की आय का दशांश दान दे बेईमानी, चोरी, डकैती, ठगी, हराम की आय स्वीकार नहीं करे।

5. वर्णाश्रम, छुआछूत, ऊंच-नीच का त्यागकर सभी मनुष्यों को समान माने। असहाय, निर्बल और दलितों की सेवा करनी चाहिए। सत्य और सेवा का भाव रखना चाहिए।
गुरु गोविंद सिंह ने नाम के अंत में सिंह लगाने के लिए कहा। केवल झटके का मांस खाना और नशा तथा तंबाकू का सेवन निषिद्ध कर दिया। उन्होंने सती प्रथा, बाल विवाह, कन्याओं की हत्या का विरोध किया। कुछ दिनों में ही लगभग 80,000 व्यक्तियों ने इस पंथ को अपना लिया। खालसा पंथ वस्तुतः सिखों का सैनिक संप्रदाय में परिवर्तन था। खालसा पंथ ने मुसलमानों की धर्मांधता का उत्तर धमांधता से देना आरंभ कर दिया।

अब संबंधित प्रश्न का अभ्यास करें और देखें कि आपकी क्या सलाह है?

☞ सिख धर्म से सम्बंधित प्रश्न उत्तर 🔗

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